इस पोस्ट में आपको बताने जा रहे इक्तादारी व्यवस्था क्या है? iqtaadaaree vyavastha kya hai?,इक्ता प्रणाली किससे संबंधित है,दिल्ली सल्तनत में इक्ता प्रथा आदि विषय पर हमने इस पोस्ट में जानकारी देने का प्रयास किया है।
इक्तादारी व्यवस्था क्या है? iqtaadaaree vyavastha kya hai?
शक्तिशाली सेना रखने के लिए अधिकाधिक भू-भाग की आवश्यकता पड़ने लगी। इसके परिणामस्वरूप एक नई व्यवस्था ने जन्म लिया, जिसे इक्ता कहा गया। विद्वान मानते हैं कि इक्ता शब्द की उत्पत्ति उसी मूल अरबी धातु से हुई जिससे कताईया शब्द बना है। इस प्रकार इस्लाम धर्म के प्रारम्भ से ही राज्य की सेवा करने के बदले पुरस्कारस्वरूप इक्ता प्रदान करने का प्रचलने हो चुका था। सामान्यत ऐसा माना जाता है कि अब्बासी खलीफाओं (754-861) के अंतर्गत आर्थिक तथा सामाजिक परिवर्तन ने वह पृष्ठभूमि प्रस्तुत की जिससे दसवीं शताब्दी में मुस्लिम दुनिया में भूमि प्रदान करने की प्रथा का आविर्भाव हुआ।
इसके बाद अब्बासी खलीफाओं की शक्ति का ह्रास हो जाने के कारण छोटे राज्यों के शासकों ने भी इस प्रणाली को अपनाया। खलीफा ने राज्य के असैनिक अधिकारियों को वेतन देने तथा अपने सैकिन अभियान के खर्च को पूरा करने के लिए इक्ता प्रणाली विकसित की। अधिकारी वर्ग तथा सेना का वेतन देने के लिए धन प्राप्ति की कठिनाईयों इतनी अधिक बढ़ गई कि अंततोगत्वा प्रशासकीय ढाँचा ही लड़खड़ा गया। इस वित्तीय कठिनाई के निदान के लिए सैनिकों एवं सैनिक अधिकारियों को वे भू-खंड बाँटे जाने लगे, जो इक्ता कहलाते थे। इक्ता प्राप्त व्यक्ति उक्त भू-खंडों के मालिक नहीं थे। वे केवल उसके लगान का ही उपयोग कर सकते थे। इसके परिणामस्वरूप आगे चलक आवंटन व्यवस्था (Farming of Taxes) भी स्थापित हुई।
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दिल्ली सल्तनत में इक्ता प्रथा
हिंद-फारसी ग्रंथों में भावी सेवा की शर्तों पर राजस्व-हस्तांतरण के रूप में इक्ता को परिभाषित किया गया है। पुनर्हस्तांतरण के सिद्धांत पर आधारित इसी राजस्व सम्बन्धी नियुक्ति की प्रथा का दिल्ली सल्तनत की राजनीतिक व्यवस्था में बड़ी सतर्कता से अनुकरण किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि इक्ता-प्रथा जिस रूप में भारत पहुंची उसका प्रारूप सर्वप्रथम खलीफा मुक्तादिर ने इस उद्देश्य से बनाया था कि उसे अपने खिलाफत (राज्य) के विभिन्न क्षेत्रों पर नियुक्त मुक्ताओं से नियमित रूप से राजस्व प्राप्त होता रहे।
ये मुक्ता लोग अपने प्रदेश के सम्पूर्ण राजस्व की वसूली करते थे और प्रशासन तथा सैनिकों ने वेतन-सम्बन्धी व्ययों के बाद बचे हुए धन में से एक निश्चित राशि को उन्हें बगदाद के दरबार में भेजना पड़ता था। हिंदुस्तान में भू-राजस्व अनुदान की ये मूलभूत विशेषताएँ सल्तनत के प्रारम्भ से अंत तक बनी रही। इक्ता के विभिन्न रूप इस प्रकार थे
इक्तादारी व्यवस्था के रूप
प्रांतीय शासक को इक्ता के रूप में सम्पूर्ण प्रांत प्रदान करना तथा उम्र (दशम्मांस शुल्क) अथवा खराज अथवा लगान (खराज-ए-उजरा) या व्यक्तिगत करों (Poll tax) जो बाद में खराज में परिवर्तित कर दिए गए से प्राप्त लाभ के बदले कुछ कृषि भूमि का अनुदान
वेतन अथवा पेंशन के रूप में किसी भू-भाग के राजस्व का हस्तांतरण। किंतु यही इक्ता की सैद्धांतिक विचारधारा को व्यापक बनाया गया। सीमा शुल्क (कस्टम) नदियों तथा नहरों से प्राप्त शुल्क तथा महसूल सम्बन्धी राजस्व की ठेकेदारी (Farming of Taxes) को इक्ता में शामिल किया जाने लगा।
उपर्युक्त सभी प्रकार की इक्ताओं में प्रशासकीय इक्ता का ही सर्वाधिक महत्व था यह निस्संदेह सैनिक अनुदान (Military Grant) था किंतु इसके साथ कुछ प्रशासकीय दायित्व भी संलग्न थे। भारत में वे इक्ता सर्वाधिक प्रचलित थे जिसे मावर्दी ने इक्ता-ए-तमलीक (नियुक्ति द्वारा) हस्तांतरित इक्ता तथा इक्ता-ए-इस्तिग़लाल (स्वभोगाधिकार सम्बन्धी इक्ता कहा है। इनमें प्रथम अथवा तमलीक का सम्बन्ध भूमि से था तथा दूसरा अर्थात इस्तिगुलाल का तात्पर्य वृत्ति या वेतन से था। इस लेख में हमारे अध्ययन का मुख्य विषय इक्ता-ए-तमलीका ही है। इक्ता प्राप्त करने वाले अधिकारियों को मुक्ता, अमीर तथा कभी-कभी मलिक मो कहा जाता था।
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वेतन (Wages)
मुद्रामूल्य (अब्रा) को आधार मानकर इक्ता का हिसाब वेतन-मूल्य के बराबर किया जाता था। मूलतः इसका उद्देश्य राजकोष की मध्यस्थता के बिना ही वेतन वृद्धि को सीधे राजस्व-स्रोत से ही वसूल करना था। यद्यपि मुक्ता के पारिश्रमिक अथवा मुवाजिब की धनराशि के सम्बन्ध में कोई लिखित प्रमाण प्राप्त नहीं है किंतु ऐसा अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि कुछ भाग उसे अवश्य मिलता होगा। खान, मलिक तथा अमीर लोगों को केंद्रीय सेवा से वेतन नहीं दिया जाता था वरन वे अपने पद या ओहदे के अनुपात में भू-राजस्व को ही अनुदान के रूप में प्राप्त करते थे।
मसालिक-उल-अवसार के लेखक से हमें क ज्ञात होता है कि खान, मलिक, अमीर तथा सिपहसालार राजकोष द्वारा प्रदत्त भूमिका राजस्व प्राप्त करते थे और यदि उनमें वृद्धि नहीं होती थी तो कभी किसी प्रकार की कमी भी नहीं आती थी। साधारण रूप से इस अनुमानित आय से कहीं अधिक धनराशि उन्हें प्राप्त हो जाती थी। खान को दो लाख टंक़ों का राजस्व अनुदान वेतन में मिलता था। प्रत्येक के का मूल्य आठ दिरहम के बराबर होता था। यह उसकी व्यक्तिगत आय थी। उसके नेतृत्व में लड़ने वाले सैनिकों को इसमें से कुछ धन देना उसके लिए आवश्यक नहीं था।
एक अलिक को मिलने वाली धनराशि पचास से साठ हजार टंका तक होती थी। अमीरों को तीस से चालीस हजार टंका तथा सिपहसालार को बीस हजार टंका अथवा इस मूल्य के बराबर का राजस्व प्राप्त होता था। सिपाहियों को वेतन दस से एक हजार टंका के बीच निर्धारित किया जाता था। हमें अनेक ऐसे उदाहरण भी प्राप्त होते हैं। जिनमें मुक्ता केवल हिंदू क्षेत्रों को जीतकर ही अपनी इक्ता का विस्तार नहीं करते थे वरन अन्य इक्ताओं को पूरी तरह से अथवा उसके कुछ अंश को अपनी इक्ता में शामिल करके अपना प्रभाव-विस्तार भी करते थे ।
इस तथ्य से ऐसा प्रतीत होता है कि वेतन का निर्धारण सम्पूर्ण राजस्व से अनुपात के आधार पर किया जाता था। किंतु यह अनुपात कितना था इसे निश्चित करना सम्भव नहीं है। चौदहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में गयासुद्दीन ने अपने राजस्व मंत्री (दीवाने-विजारत) को हिदायत दी थी कि ‘अपने पद से सलंग्न लाभ के अतिरिक्त यदि मलिक तथा अमीर लोग इक्ता या विलायत के राजस्व का अर्थ-दशमांश या अर्ध-ग्यारहवाँ भाग और दसवाँ या -पंद्रहवाँ भाग लेते हैं तो उन्हें दंडित ने किया जाए। इसमें प्रयुक्त शब्दों से संकेत मिलता है कि पद से संलग्न लाभ, चाहे उसका मूल्य कितना ही रहा हो, पदाधिकारियों का सामान्य वेतन था। इसके अतिरिक्त भी लाभ का कुछ प्रतिशत मुक्ता लोगों को प्रदान करने को सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक तैयार था।
सम्भवतः यह ख़िलजी केंद्रीकरण के समय समाप्त हो गई। पहले की जो प्रथा थी उसे पुनर्जीवित किया गया। इब्नबतूता लिखता है कि मुहम्मद तुगलक के प्रांतीय शासक राजस्व का बीसवाँ हिस्सा कमीशन के रूप में लेते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि किसी मुक्ता को बड़ी इक्ता से स्थानांतरित करके छोटी इक्ता पर नियुक्त नहीं किया जाता था। इसका अपवाद हम केवल दंडरूप में पाते हैं जब इल्तुतमिश ने कबीर खाँ को सुल्तान से हटाकर पलवल की छोटी इक्ता दी अथवा बलबन ने 1253 ई. में किशलू खाँ को दरबार से निकालकर उसे नागौर की व्यापक इक्ता से हटाया और कड़ा में नियुक्त किया। यह महत्वपूर्ण तथ्य ध्यान देने योग्य है कि मुक्ता की राजस्व का एक निश्चित भाग ही प्रदान किया जाता था और उसकी आर्थिक स्थिति इक्तादार से भिन्न थी क्योंकि इसका केंद्रीय राजकोष के प्रति कोई उत्तरदायित्व नहीं था।
दो हजार शम्सी इक्तादारों की स्थिति से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें सेना में अपनी व्यक्तिगत सेवा के लिए वेतन के रूप में गाँवों का भू-राजस्व प्रदान किया था। इसी श्रेणी में बख्त्यिार की इक्ता भी आती है जो उसे अवध के मुक्ता ने प्रदान की थी। असैनिक सेवा के लिए प्रदान अनुदान श्रेणी में ही सल्तनत के काजी तथा शहर के मीर-ए-दाद की नियुक्तियाँ भी होती थीं।
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इक्तादारी व्यवस्था का स्वरूप
भारत में तुर्की शासनक के प्रारम्भिक काल में इक्ता के लिए निजाम-उल-मुल्क तूसी द्वारा सियासतनामा में व्यक्त मत का उद्धरण यहाँ उपयोगी होगा। इस प्रसिद्ध ग्रंथ में उसने ग्यारहवीं शताब्दी में पश्चिमी एशिया के सल्जुका ख्वारिज्म के शासकों तथा तुर्की राज्यों के अंतर्गत राजनीतिक प्रशासन के अनुभव का सारांश प्रस्तुत किया है
“मुक्ता लोगों को यह ज्ञात होना चाहिए कि रिआया पर उनके अधिकार का अर्थ केवल उनसे यथोचित धनराशि तथा अतिरिक्त लाभ (माल-ए-हक) को शांतिपूर्ण ढंग से सम प्राप्त करना है…रिआया के जीवन, सम्पत्ति, परिवार को हर प्रकार के नुकसान से बचाना चाहिए। उन पर मुक्ताओं का कोई अधिकार नहीं है। यदि रिआया सुल्तान से सीधे अपील करना चाहती है तो मुक्ता को उन्हें रोकना नहीं चाहिए। जो मुक्ता इन नियमों को भंग करता उसे पदच्युत कर देना चाहिए और उसे दंडित करना भी अपेक्षित हैं… मुक्ता तथा वली उसी प्रकार उन लोगों पर निरीक्षक के समान है, जैसे मुक्ता पर सुल्तान निरीक्षक के रूप में होता ई…प्रत्येक तीन या चार वर्ष के बाद आमिलों तथा मुक्ताओं का स्थानांतरण करना उचित जिससे कि वे अधिक शक्ति अर्जित न कर सकें।”
यह महत्वपूर्ण बात है कि पर्याप्त विस्तार के साथ भारत में इसी प्रथा का अनुसरण किया गया और सैनिक प्रांतपति पद की व्यवस्था भी लागू की गई तूसी के विवरण से निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं
(i) मुक्ता लोगों द्वारा उतनी ही धनराशि करना उचित है जितनी कि राज्य द्वारा निर्दिष्ट है।
(ii) निर्धारित राशि की वसूली के लिए यथासम्भव शक्ति का उपयोग नहीं होना चाहिए।
(ii) रिआया को पूर्ण अधिकार था कि वे अपने मामले को सीधा सुल्तान के समक्ष प्रस्तुत कर सकें।
(iv) मुक्ता केवल एक सरकारी पदाधिकारी था जिसकी नियुक्ति स्थानांतरणमूलक थी स्थानांतरण भी नियमित समय के अंतर्गत होना अपेक्षित था जिससे प्रशासनिक कुशलता बनी रहे और स्थानीय लोगों में किसी प्रकार का असंतोष भी व्याप्त न हो।
इक्तादारी व्यवस्था लागू करने का उद्देश्य
तुर्कों के सामने प्रशासन सम्बन्धी अनेक जटिल समस्याएँ थीं। जितने व्यापक क्षेत्र के प्रशासन की जिम्मेदारी उन पर थी उसकी तुलना में उन्हें साधन कम उपलब्ध थे। अभी तक भारत में राजपूत सामंतों का ही शासन था। इससे भी अधिक स्थानीय महत्व की अनेक समस्याएँ उपस्थित हुईं जिनका समाधान भी स्थानीय स्तर पर ही सम्भव था। तुर्कों ने इस बात को शीघ्र ही समझ लिया था कि आंतरिक रूप से देश में अनेकों विकेंद्रीकरण की प्रवृत्तियों तथा सीमाओं पर विदेशी आक्रमण के निरंतर बढ़ते हुए खतरे के कारण इतने विस्तृत क्षेत्र पर प्रभावशाली शासन स्थापित करना एक कठिन समस्या है।
तुर्की शासक यह अच्छी तरह समझते थे कि राज्य के साधनों को समन्वित करके अपनी शक्ति को सुदृढ़ किए बिना उक्त समस्याओं का निदान सम्भव नहीं है। प्रस्तुतः परिस्थितियों में तेरहवीं शताब्दी में प्रचलित इक्ता प्रथा को इन्हीं परिस्थितियों का निदान करने के लिए स्थापित किया गया था। ऐबक तथा इल्तुतमिश ने इस – प्रथा से पूरा लाभ उठाया था। इन प्रशासकों ने भारतीय समाज से सामंती- प्रथा को समाप्त करने तथा साम्राज्य के दूर-दराज के हिस्सों को केंद्र से जोड़ने के लिए महत्वपूर्ण साधान के रूप में इक्ता प्रणाली का उपयोग किया। इससे तुर्की शासक वर्ग के अर्थलिप्सा की तुष्टि भी हुई और नए विजित प्रदेशों में कानून तथा व्यवस्था की स्थापना के साथ ही राजस्व वसूली की आवश्यक समस्या का समाधान भी हुआ।
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सैन्यीकरण (Militarisation)
यह मान्य तथ्य है कि जिस राज्य में अत्याधिक केंद्रीकरण होता है उसमें प्रशासन का सैन्यीकरण भी अनिवार्य है। इसके लिए एक विशाल सेना अपेक्षित है। सल्तनत के प्रारम्भिक काल में मुद्रा-प्रणाली में स्थिरता नहीं आ पाई थी। अधिकारियों को वेतन अदा करने का एकमात्र साधन भू-राजस्व का अनुदान था। इस कारण राजस्व अनुदान व्यवस्था (इक्ता) को एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्था के रूप में स्थापित किया गया। भारत में इक्ता लागू करने का एक और महत्वपूर्ण कारण यह भी था कि इससे सुल्तान उपज के अधिशेष का एक बड़ा भाग उपलब्ध कर सकता था। राज्य की आय का यह अंश खराज के रूप में लिया जाता था और इस समय तक यह एक नियमित कर हो चुका था।
इस राजस्व (भू-राजस्व) व्यवस्था के अंतर्गत किसान अपने निर्वाह से सम्बन्धित न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के अलावा अपने कृषि अधिशेष के अधिकांश अंश को राज्य को खराज के रूप में दे देता था। इक्ता के पदाधिकारी (जिन्हें मुक्ता या वली कहा जाता था) खराज तथा अन्य कर वसुल करके अपना तथा अपने सैनिकों का भरण-पोषण करते थे और बची हुई (Surplus) राशि सुल्तान के कोष के लिए भेज देते थे। इस प्रकार उपलब्ध विपुल राजस्व के कारण ही मुस्लिम राज्य बड़ी सेना रखने में समर्थ हुए तथा इन राज्यों में अनेक बड़े नगरों का विकास सम्भव हुआ सुल्तानों ने अमीर वर्ग को नकद वेतन के बदले भरण-पोषण के लिए इक्ता प्रदान किया। इस प्रकार इक्ता में इन दोनों कार्यों का अंतर्भाव था। कृषक वर्ग अधिशेष (surplus) की वसूली और इस अधिशेष का शासक वर्ग में वितरण। यह कार्य इस ढंग से किया गया था कि दिल्ली सल्तनत के राजनीतिक ढाँचे में निहित एकता को तत्काल कोई खतरा पैदा न हो।
इक्तादारी व्यवस्था का प्रचलन
गौरी की विजयों के बाद शीघ्र ही उत्तर भारत में इक्ता-प्रथा स्थापित हो गई। गौर के मुहम्मद साम (मुहम्मद गौरी) ने कुतुबुद्दीन ऐबक को 1191 ई. में हाँसी में नियुक्त किया तथा मलिक नासिरूद्दीन अस्ताम को कच्छ का प्रदेश प्रदान कर दिया। ऐबक का काल अत्यंत संक्षिप्त था (1206-1210)। इस कारण उसके अंतर्गत इक्ता व्यवस्था के बारे में जानकारी प्राप्त नहीं होती। ऐसा प्रतीत होता है कि सन 1210 में इल्तुतमिश के राज्यारोहण के साथ ही दिल्ली सल्तनत के शासन- तंत्र की आधारशीला के रूप में इक्ता-प्रथा स्थापित हुई। उसके शासनकाल के छब्बीस वर्षों में (1211-1236 ई.) मुल्तान से लखनौती के बीच सम्पूर्ण सल्तनत बड़े तथा छोटे भू-भागों में विभाजित हो गई जिन्हें इक्ता कहा जाता था और जो मुक्ता नामक विशिष्ट अधिकारी के प्रशासन के अंतर्गत थे।
इस प्रकार इक्ता की दो श्रेणियाँ थीं- पहली खालसा के बारह प्रांतीय स्तर की इक्ता तथा दूसरी कुछ गाँवों के रूप में छोटी इक्ता प्रांतीय स्तर की इक्ताएँ उच्च वर्ग के अमीरों को दी जाती थीं। राजस्व सम्बन्धी तथा प्रशासकीय दोनों प्रकार के उत्तरदायित्व उनके पद से जुड़े होते थे। इन बड़ी-बड़ी इक्ताओं के धारकों को मुक्ता कहा जाता था। मिनहाज तथा बरनी ने समस्त उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों के सम्बन्ध में इसी मुक्ता शब्द का आमतौर पर प्रयोग किया है। कुछ गाँवों को जोड़कर बनी छोटी, इक्ताओं को सुल्तान अपने द्वारा नियुक्त सैनिकों (Sawar-i-qalb) को वेतन के बदले दे देता था। इन इक्ताओं को खालसा का अंग माना जाता था। इन इक्तादारों को किसी प्रकार के प्रशासकीय अथवा आर्थिक उत्तरदायित्व नहीं दिए जाते थे। बरनी के अनुसार इल्तुतनिश के समय इस प्रकार के दो हजार इक्तादार थे जिनका कोई भी प्रशासकीय उत्तरदायित्व नहीं होता था।
इस तरह हम पाते हैं, कि तेरहवीं शताब्दी में सुल्तानों ने छोटे-बड़े क्षेत्रों को विभिन्न अमीरों को प्रदान किया जिन्हें प्रशासकीय राजस्व सम्बन्धी तथा सैनिक कार्य करने पड़ते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि मुक्ता भी अपनी बड़ी इक्ता में से छोटी-छोटी इक्ताएँ जिसे चाहें उसे दे सकते थे। बदायूँ के मुक्ता ताजुद्दीन संजर कुतुलुग ने मिनहाज सिराज के जीवन निर्वाह के लिए सन् 1242-43 में इक्ता प्रदान की थी जब उसे (सिराज को) दिल्ली छोड़ना पड़ा था।
इक्तादारी व्यवस्था का अंत
इक्ता प्रथा का अंत अलाउद्दीन खिलजी ने किया ।
Conclusion
उपरोक्त बातों से यह पता चलता है कि इक्तादारी व्यवस्था में शासक सैनिकों या राज्य अधिकारियों वेतन के बदले उन्हें भूमि इसलिए देते थे इक्ता भूमि में राजस्व वसूली के साथ-2 सैनिक और प्रशासनिक कर्तव्य भी करते थे। इस प्रकार इक्ता प्रणाली के कारण दिल्ली सल्तनत अस्तित्व में आया